क्या यह इंसानों की बस्ती है?
~ ANAND KISHOR MEHTA
सुबह के साथ उम्मीद जगती है। हर मोहल्ला, हर गली, हर घर – एक नई शुरुआत की संभावना लेकर उठता है। लेकिन कुछ जगहों पर सुबह की यह संभावना शोर में दब जाती है। जैसे ही सूरज निकलता है, किसी के घर में गालियाँ गूंजती हैं, तो कहीं दरवाज़े पटके जाते हैं। मोहल्ला जैसे झगड़ों का अखाड़ा बन चुका हो – न किसी को सुनना है, न समझना है – सिर्फ बोलना है, चिल्लाना है, थोपना है।
ऐसा लगता है मानो लोग अपनी-अपनी जिंदगी की हताशा, कुंठा और अधूरी इच्छाओं का बोझ एक-दूसरे पर फेंककर हल्का होना चाहते हैं।
कोई अपनी बात न माने जाने पर खुद को चोट पहुँचा देता है – जैसे स्वयं से ही बदला ले रहा हो।
कोई दूसरों की आवाज दबाकर खुद को सही सिद्ध करता है – मानो बहस जीतना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो।
कोई चुप रहता है, पर भीतर ही भीतर घुटता है, अपनी चुप्पी से नफरत करने लगता है।
और कोई, नशे में डूबकर खुद को ‘शांत’ करने की कोशिश करता है – लेकिन वह नशा केवल थोड़ी देर के लिए चीखों की आवाज धीमी करता है, हालात नहीं बदलता।
क्या यही मानवता है? क्या यही सभ्यता है?
क्या इस झगड़े, आरोप-प्रत्यारोप और शोर में वो चीज़ें कहीं खो नहीं गईं, जो हमें इंसान बनाती थीं — जैसे सहनशीलता, संवाद, समझदारी और संयम?
यह समस्या केवल एक मोहल्ले की नहीं है। यह एक बड़ी सामाजिक बीमारी का लक्षण है – जहां हम एक-दूसरे से नहीं, खुद से असंतुष्ट हैं। जहाँ रिश्ते संवाद से नहीं, तर्क और चिल्लाहट से चलते हैं। जहाँ इंसान अपनी हार को स्वीकारना नहीं चाहता, और जीत का मतलब बस दूसरों को दबाना समझता है।
इस लेख का उद्देश्य किसी को दोष देना नहीं है।
बल्कि एक आईना दिखाना है — ताकि हम यह पूछ सकें कि:
"कहीं हम भी तो इस शोर का हिस्सा नहीं बन गए हैं?"
परिवर्तन केवल उपदेश से नहीं, व्यवहार से आता है।
ज़रूरत इस बात की है कि हम अपनी प्रतिक्रियाओं पर काबू पाएं, अपने क्रोध को पहचानें, और संवाद की शक्ति को फिर से याद करें।
शांति की शुरुआत किसी बड़े मंच से नहीं होती।
वह बस एक घर से होती है — और कभी-कभी, एक कमरे से।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
कविता:
किस बस्ती में आ गए हैं हम?
सुबह-सुबह क्यों रोती है गली,
किस दर्द को टाल रहे हैं हम?
हर कोना यहाँ गुस्से से जलता है,
क्या अब भी इंसान कहलाते हैं हम?
बोलते हैं सब, सुनता कोई नहीं,
हर दिल में जैसे कोई ज़ख़्म गहरा है।
कोई खुद से लड़ता है, कोई सबसे,
और हर चेहरा बस बेसब्र सा चेहरा है।
एक माँ चुप है, एक बाप चिड़चिड़ा,
बच्चा खामोशी में सवाल पूछता है।
"क्या घर यूँ ही होते हैं?" —
किसे कहे वो, किसे समझाए, किससे रूठता है?
कोई पीकर चैन ढूँढता है,
कोई चुप रहकर घुटता है।
कोई ज़ोर से बोलकर जीतता है,
पर अंदर ही अंदर टूटता है।
बस्ती है ये या कोई दुखों का डेरा,
हर आवाज़ में जैसे कोई वीरानी घुली हो।
कोई किसी का नहीं, सब खुद के ही दुश्मन,
जैसे रूह भी अब थकी-थकी सी चली हो।
सच कहूँ —
खामोश दीवारें ही सबसे ज़्यादा जानती हैं,
कि किस बस्ती में आ गए हैं हम।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
बस्ती का शोर और खामोशियाँ
(समाज की विडंबनाओं पर कुछ मौलिक चिंतन)
जब हर कोई सही हो — तो झगड़ा तय है,
सुन लेने से कभी कोई छोटा नहीं होता।
जहाँ आवाज़ें ऊँची हों,
वहाँ दिल अक्सर खाली होते हैं।
शांति की तलाश अगर दूसरों में करोगे,
तो जीवन बस शोर बनकर रह जाएगा।
हर झगड़े के पीछे कोई अनकही बात होती है,
जो अगर सुनी जाती — तो शायद झगड़ा होता ही नहीं।
जिस बस्ती में हर रोज़ झगड़ा हो,
वहाँ बचपन सबसे पहले मरता है।
चीखों से न कोई जीतता है, न कोई हारता है —
बस इंसानियत रोज़ हारती है।
गुस्से से बने मकान में,
प्यार कभी पनप नहीं सकता।
लोग समझते हैं कि चिल्लाने से बात बनती है,
पर असल में बात वहीं खत्म हो जाती है।
बस्ती का शोर, दरअसल हर दिल की खामोशी की चीख है।
जब रिश्तों में दया मर जाए,
तो इंसान भी धीरे-धीरे हैवान हो जाता है।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
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